सामाजिक
स्थिति:
संयुक्त एवं पितृसत्तात्मक परिवार की प्रथा
इस काल में भी बनी रही।
۞ समाज वर्णव्यवस्था पर आधारित था तथा वर्ण अब
जाति का रूप लेने लगा था। ब्राह्मण और क्षत्रिय के विशेषाधिकार इस काल में अत्यधिक
विस्तृत हो गये।
۞ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों
वर्गों को द्विज कहा जाता था। शूद्रों की स्थिति में गिरावट आई।
۞ उत्तरवैदिक काल में नारियों की स्थिति में
ऋग्वेद की अपेक्षा गिरावट आयी।
۞ मेयात्तायणी संहिता में स्त्रिायों को मदिरा व
पाशा के साथ तीन बुराइयों में रखा गया है।
۞ ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्रा को परिवार का रक्षक
तथा पुत्राी को दुःख का कारण बतलाया गया है।
۞ उत्तर वैदिक काल मेंस्त्रिायों के राजनीतिक
तथा सामाजिक अधिकार पर प्रतिबंध लगाना प्रारम्भ हो गया परन्तु धार्मिक यज्ञों में
भाग लेने का अधिकार इस काल में भी बरकरार रहा।
۞ स्त्रिायां सभा और समिति जैसी राजनीतिक
संस्थाओं में भाग नहीं ले सकती थी।
۞ आर्थिक दृष्टि से स्त्राी-पुरुष संबंधियों पर
आश्रित थी।
۞ वृहदारण्यक उपनिषद् जनक की सभा में गार्गी और
याज्ञवल्क्य के बीच वाद-विवाद का उल्लेख करता है।
۞ चार्तुआश्रम व्यवस्था की जानकारी जाबालोपनिषद्
से मिलती है।
۞ इस काल में गोत्रा प्रथा स्थापित हुई तथा
गोत्रा बर्हिर्विवाह की प्रथा प्रारम्भ हुई।
۞ उत्तरवैदिक कालीन समाज में अस्पृश्यता का उदय
नहीं हुआ था। अंर्तवर्ण विवाह भी सम्पनन होते थे।
۞ मनुस्मृति के अनुसार विवाह के आठ प्रकार थे-
۞ स्मृतिकारों ने 16 संस्कारों की
संख्या बतायी है-
1ण्
गर्भाधान
2ण् पुंसवन (पुत्रा
प्राप्ति हेतु मंत्रच्चारणद्ध
3ण्
सीमांतोन्यन (गर्भ
की रक्षा करनाद्ध
4ण् जातकर्म (पिता द्वारा
नवजात शिशु का स्पर्शद्ध
5ण् नामकरण
6ण् निष्क्रमण (बच्यचे को
पहली बार निकाला जाता थाद्ध
7ण् अन्नप्राशन 8ण् कर्णवेध
9ण् चूड़ाकर्म 10ण् विद्यारंभ
11ण् उपनयन 12ण् वेदारंभ
13ण् केशान्त
14ण् समावर्तन (विद्या
समाप्ति के बादद्ध
15ण् विवाह 16ण् अंत्येष्टि
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