पंच महाव्रत-1ण् अहिंसा, 2ण् अमृषा (सदा सत्य एवं
मधुर बोलनाद्धए
3ण्
अपरिग्रह (सभी
प्रकार के सम्पत्ति अर्जन से बचनाद्धए 4ण् अस्तेय (अनुमति के बिना किसी दूसरी
की सम्पत्ति ग्रहण करने से बचना) तथा 5ण् ब्रह्मचर्य। चार पहले से अस्तित्व में
थे तथा ब्रह्मचर्य महावरी के द्वारा जोड़ा गया।
۞ जैन धर्म में संसार को वास्तविक, शाश्वत तथा
दुःखमूलक माना गया हे। सृष्टिकत्र्ता के रूप में ईश्वर को नहीं मानता।
۞ देवताओं के अस्तितव को स्वीकार किया है परन्तु
इनका स्थान जिन से नीचे है।
۞ जैन धर्म कर्मवादी है तथा इसमें पुनर्जन्म की
मान्यता है।
۞ संसार 6 द्रव्यों-जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल
से निर्मित है।
۞ जैन दर्शन के अनुसार आत्मा संसार की सभी
वस्तुओं में है। प्रत्येक जीव में दो तत्व सदा विद्यमान रहते हैं-एक आत्मा और
दूसरा भौतिक तत्व (काया
क्लेशद्ध।
۞ अज्ञान के कारण जीव कर्म की ओर आकर्षित होने
लगता है, इसे
आस्त्राव कहते हैं।
अन्य
धार्मिक सम्प्रदाय
सम्प्रदाय संस्थापक
आजीवक मक्खलिपुत्रा गोशाल
अक्रियवादी पूरणकस्सप
उच्छेदवादी अजित केसकंबलिन
नित्यवादी पकुध कच्चायन
संदेहवादी संजय वेलट्ठलिपुत्त
۞ कर्मों का जीव की ओर प्रवाह रुक जाना संवर
कहलाता है।
۞ निर्जरा पहले से जीव में व्याप्त कर्म का
समाप्त होना कहलाता है।
۞ जैन धर्म कृषि एवं युद्धके विरोधी थे क्योंकि
इससे जीवों की हिंसा होती थी। इसके विपरीत व्यापार-वाणिज्य को महत्व दिया क्योंकि
इसमें हिंसा की संभावना नहीं रहती है।
۞ त्रिरत्न: कर्म-फल से छुटकारा पाने के लिए
महावीर ने त्रिरत्न का पालन आवश्यक बताया है। ये हैं-
1ण् सम्यक् दर्शन-सत में विश्वास।
2ण् सम्यक् ज्ञान-वास्तविक ज्ञान।
3ण् सम्यक् आचरण-सांसारिक विषयों में उत्पन्न
सुख-दुःख के प्रति समभाव।
۞ ज्ञान का सिद्धान्त: जैन धर्म के अनुसार ज्ञान
पांच प्रकार का होता है-
1ण् मति-सामान्य ज्ञान।
2ण् श्रुति-श्रवण द्वारा होने वाला ज्ञान।
3ण् अवधि-अतिमानवी दिव्य ज्ञान।
4ण् मनःपर्याय-अन्य व्यक्तियों के मन-मस्तिष्क की
बात जान लेने का ज्ञान।
5ण् केवल-पूर्ण ज्ञान, निर्ग्रन्थ
एवं जितेन्द्रियों को प्राप्त होने वाला।
۞ स्याद्वाद: जैन धर्म में ज्ञान के 7 विभिन्न
दृष्टिकोण (1ण्
है,
2ण्
नहीं हैं, 3ण्
है और नहीं है, 4ण्
कहा नहीं जा सकता, 5ण्
है किन्तु कहा नहीं जा सकता, 6ण् नहीं है और कहा नहीं जा सकता, 7ण् है, नहीं है और
कहा जा सकता हैद्ध। से देखा गया है जो स्याद्वाद कहलाता है। इसे अनेकान्तवाद अथवा
सप्तभंगीय का सिद्धान्त भी कहते हैं।
۞ अनेकात्मवाद: आत्मा संसार की सभी वस्तुओं में
है। जीव भिन्न-भिन्न होते हैं उसी प्रकार आत्माएं भी भिन्न-भिन्न होती हैं।
۞ जैन धर्म में तप पर अत्यधिक बल दिया गया है।
उपवास द्वारा शरीर के अंत का भी विधान है जिसे सल्लेखन कहा गया है।
۞ आत्मा को कर्मों के बंधन से छुटकारा दिलाना
निर्वाण कहा गया है जो जीवन का अंतिम लक्ष्य है।
۞ महावीर ने अपने समस्त अनुयायियों को 11 गणों में
विभक्त किया। संघ में प्रवेश के लिए जाति संबंधी कोई बंधन नहीं था। स्त्रिायों को
भी संघ में प्रवेश की अनुमति थी।
तीर्थंकर
व उनके प्रतीक
तीर्थंकर प्रतीक
ऋषभदेव सांड़
अजित हाथी
संभव घोड़ा
नेमि शंख
पाश्र्वनाथ सर्प
महावीर सिंह